जिन उंगलियों को पकड़ कर चलना सीखा
जिन कंधों पर बैठ कर दुनिया देखी
आज वो उंगलियाँ बूढ़ी हो चलीं हैं
और कंधे झुके-झुके से दिखते हैं
उन आँखों में जब
झाँक कर देखा,
तो नज़र आया, बहुत दूर आ गए
यूँ ही कतरा-कतरा चलते-चलते..
काश की ये ज़िंदगी भी कागज़ की होती
और हर दिन एक पन्ना
जिसे जब चाहो पलट लो
और जी लो
लिख लो फिर से उस दिन को
एक नई तरह से
पेंसिल की सियाही जैसे
गलती हो तो मिटा कर सही कर लो
दिल करता है
एक बार फिर से मौका मिले तो
शायद कुछ बेहतर कर सकूँ
एक पन्ना बस, फिर से लिख लूँ
ज़िन्दगी के उस पार से इस पार
जाने कब आ गए
उनकी कहानियाँ पढ़ते-पढ़ते
जाने कब अपनी कहानी सुना गए
उन पन्नों में वो अनमोल यादें
जैसे बार-बार एक ही बात कहतीं हैं
उस कागज़ और सियाही के बीच भी
कई ज़िंदगियाँ रहती हैं
वो, जिनके बारें में कभी लिख ही नहीं पाए
जिन्हें सोंच में जगह मिली
लेकिन जिनको बयाँ कभी कर ही नहीं पाए