Tuesday, July 3, 2012

फिर लौट आयी रात..


राख बन गये हैं आँसू जल-जल के..
जाने कितने और ख्वाब जलायेंगे..
अपने झुलसे हुए अस्तित्व के दर्द में..
जाने कितनी राते बुझायेंगे..
हर वक्त धुआँ बन कर..
जाने कितनी साँसे पी जायेंगे..
जल जाने दो मुझे इसी आग में..
बुझ जाने दो मुझे इसी रात में..
इससे पहले कि मेरे बीते हुए कल की आग में..
मेरा आज लिपट जाये..
और उन लपटों में जल रहा मेरा कल बुझ जाये..
थम जाने दो साँसे कुछ देर..
कुछ देर तो उनका दर्द ठहरे..
मेरी नियति मेरा अन्त है..
मेरा अन्त ही उनका जीवन..

तुम को क्या मालूम..

अधखिली सी इक कली तुम को क्या मालूम कीमत नहीं है कोई जो चुरा ले जाए कोई भंवरा तुमसे तुम्हारी सादगी तरस जाती होंगी  वो ओस की बूंदे हलके से छू ...