Wednesday, October 8, 2014

चिआ..


बचपन का सपना था..
या जीवन का एक फटा सा पन्ना शायद..
नन्हें परों ने मिलकर बुना था उम्मीदों का महल..
जाने फिर जो हुआ वह था कि नहीं जायज़..
धुंधला कर मिट गया उन उम्मीदों का कल..
पंखों ने पर उड़ान नहीं छोड़ी..
दिशाएँ बदली,  बदली मंज़िल..
बदल गयी चिआ की तस्वीर..
न बदली जो मन के मन में..
वो नन्हेंपन की यादों की तासीर..
उन मीठे पलों की मासूमियत..
अक्सर कानों में बुदबुदा जाती है..
उन नन्हें परों की जब याद आती है..

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